माता पार्वती और भगवान कार्तिकेय की कथा हिन्दू धर्म की पुराणों में प्रमुख स्थान रखती है। यह कथा “स्कंद पुराण” में विस्तृत रूप से वर्णित है, जिसमें माता पार्वती ने अपने पुत्र भगवान कार्तिकेय को एक श्राप दिया था। इस श्राप के पीछे की कहानी कई महत्वपूर्ण धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं को उजागर करती है। इस कथा के माध्यम से हमें यह समझने का अवसर मिलता है कि माता-पिता और संतानों के बीच के संबंधों में श्रद्धा, आदर, और सही-गलत का क्या महत्व है।
कथा के अनुसार, एक दिन भगवान शिव और माता पार्वती कैलाश पर्वत पर विराजमान थे। उनके दो पुत्र थे—भगवान गणेश और भगवान कार्तिकेय। दोनों पुत्रों में यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि उनमें से कौन अधिक श्रेष्ठ है। माता पार्वती ने इस विवाद को शांत करने के लिए एक परीक्षा की योजना बनाई। उन्होंने कहा कि जो सबसे पहले पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटेगा, उसे श्रेष्ठता दी जाएगी।
भगवान कार्तिकेय जो कि बहुत ही साहसी और वीर थे, तुरंत अपने वाहन मयूर पर सवार होकर पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े। वहीं, भगवान गणेश ने अपनी बुद्धिमानी का प्रयोग किया। उन्होंने पृथ्वी के चारों ओर जाने के बजाय अपने माता-पिता, भगवान शिव और माता पार्वती, के चारों ओर तीन बार परिक्रमा की और कहा कि उनके लिए उनके माता-पिता ही पूरी दुनिया हैं। भगवान गणेश की इस बुद्धिमत्ता से प्रसन्न होकर माता पार्वती ने उन्हें विजयी घोषित कर दिया।
जब भगवान कार्तिकेय अपनी यात्रा पूरी कर वापस लौटे, तो उन्हें यह जानकर बहुत क्रोध आया कि माता पार्वती ने भगवान गणेश को विजयी घोषित कर दिया है। कार्तिकेय ने सोचा कि उन्होंने पूरे संसार का चक्कर लगाया, फिर भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इस विचार ने उनके मन में निराशा और क्रोध को जन्म दिया। वे अपनी माता के इस निर्णय से असहमत और आहत हुए और कैलाश छोड़कर दक्षिण दिशा की ओर चले गए।
माता पार्वती अपने पुत्र कार्तिकेय के इस व्यवहार से बहुत दुखी हुईं। उन्हें लगा कि कार्तिकेय ने माता-पिता के निर्णय का आदर नहीं किया और अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख सके। माता पार्वती ने इस व्यवहार को अनुचित मानते हुए कार्तिकेय को श्राप दिया कि उन्हें कभी भी सुख-शांति प्राप्त नहीं होगी और वे हमेशा दक्षिण दिशा में ही रहेंगे, जहां वे अपने अकेलेपन और निराशा में दिन बिताएंगे।
भगवान कार्तिकेय ने माता के श्राप को स्वीकार किया और दक्षिण दिशा में ही रहने का निर्णय लिया। उन्हें “दक्षिणामूर्ति” के रूप में पूजा जाने लगा, और आज भी दक्षिण भारत में भगवान कार्तिकेय की पूजा विशेष रूप से की जाती है। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में भगवान कार्तिकेय को मुख्य देवता के रूप में पूजा जाता है, जैसे कि तमिलनाडु का प्रसिद्ध मंदिर “पलानी”। इस मंदिर में भगवान कार्तिकेय को “मुरुगन” के रूप में पूजा जाता है, और यह स्थान उनके प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है।
इस कथा के माध्यम से कई महत्वपूर्ण शिक्षाएं मिलती हैं। सबसे पहले, यह कहानी हमें यह बताती है कि केवल बाहरी कर्म और परिश्रम ही नहीं, बल्कि बुद्धि और विवेक का प्रयोग भी उतना ही महत्वपूर्ण है। भगवान गणेश ने अपने माता-पिता के प्रति अपनी श्रद्धा और सम्मान को सर्वोपरि माना और विजयी हुए, जबकि कार्तिकेय ने इसे समझने में चूक कर दी।
दूसरा, माता पार्वती का श्राप इस बात का प्रतीक है कि माता-पिता का सम्मान और उनकी भावनाओं का आदर करना आवश्यक है। कार्तिकेय का क्रोध और असहमति उनकी माता के निर्णय के प्रति उनके आदर की कमी को दर्शाता है, और यह कथा हमें सिखाती है कि किसी भी परिस्थिति में माता-पिता का सम्मान नहीं भूलना चाहिए।
इसके अलावा, यह कथा इस बात को भी उजागर करती है कि क्रोध और निराशा के परिणामस्वरूप जीवन में अशांति और अकेलापन आता है। भगवान कार्तिकेय के दक्षिण दिशा में चले जाने और वहाँ हमेशा के लिए बस जाने का निर्णय, उनके जीवन में स्थायी अशांति का प्रतीक है। यह कथा हमें यह भी सिखाती है कि हमें अपने क्रोध और निराशा पर काबू पाना चाहिए, अन्यथा इसके परिणामस्वरूप हमें कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
माता पार्वती और भगवान कार्तिकेय की इस कथा में न केवल धार्मिक, बल्कि नैतिक और सामाजिक संदेश भी समाहित हैं। यह कथा हमें हमारे जीवन के मूल्यों को समझने और उनका पालन करने की प्रेरणा देती है। माता-पिता का सम्मान, बुद्धिमानी का प्रयोग, और क्रोध पर नियंत्रण जैसे गुण हमें एक सफल और शांतिपूर्ण जीवन की ओर ले जाते हैं। इस कथा से हमें यह भी सिखने को मिलता है कि हमारे कर्मों के परिणाम हमेशा हमारे साथ रहते हैं, और इसलिए हमें अपने जीवन में सही निर्णय लेने की कोशिश करनी चाहिए।
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