बहुत समय पहले की बात है। एक प्रसिद्ध गुरुकुल में अनेक शिष्य शिक्षा ग्रहण किया करते थे। उस गुरुकुल के गुरु बहुत ज्ञानी, शांत स्वभाव और अनुशासनप्रिय थे। उनके पास दूर-दूर से विद्यार्थी शिक्षा लेने आया करते थे।
एक दिन एक नया शिष्य गुरुकुल में आया। वह बहुत बुद्धिमान था, लेकिन उसमें अहंकार भी था। वह सोचता था कि वह बाकी सब शिष्यों से अधिक जानता है। वह गुरु की बातों पर भी कई बार प्रश्नचिह्न लगाने लगता।
एक दिन गुरु ने सभी शिष्यों को एक छोटी सी परीक्षा लेने के लिए बुलाया। उन्होंने सभी को एक-एक मिट्टी का दीपक दिया और कहा, “इन दीपकों को जलाओ और इस जंगल में जाकर ऐसे स्थान पर रख आओ जहाँ कोई उसे न देख सके। पर शर्त ये है कि दीपक बुझना नहीं चाहिए।”
सभी शिष्य दीपक लेकर जंगल की ओर चल पड़े और अपने-अपने हिसाब से छुपाकर दीपक रख आए। पर वह घमंडी शिष्य देर तक दीपक लेकर घूमता रहा और वापस खाली हाथ लौटा।
गुरु ने उससे पूछा, “तुम दीपक क्यों नहीं रख पाए?”
शिष्य बोला, “गुरुदेव, मैं जहाँ भी दीपक रखने गया, वहां प्रकाश फैलने लगता और मुझे डर था कि कोई देख न ले। दीपक जलता रहे और कोई देखे भी नहीं — ये संभव नहीं था।”
गुरु मुस्कराए और बोले, “बस यही मैं तुम्हें समझाना चाहता था। सत्य और ज्ञान का भी यही स्वभाव होता है — जब वह होता है, तो उसका प्रकाश खुद-ब-खुद फैलता है। उसे छुपाया नहीं जा सकता।”
फिर गुरु ने कहा, “ज्ञान केवल पढ़ने और बोलने से नहीं आता, बल्कि विनम्रता, अनुशासन और अनुभव से आता है। जब तुम ज्ञान के साथ अहंकार छोड़ोगे, तभी तुम सच्चे शिष्य बन सकोगे।”
यह सुनकर उस शिष्य को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने गुरु के चरणों में झुककर क्षमा मांगी और निष्ठा से सीखने का संकल्प लिया।
नीति सीख (Moral): ज्ञान का सही उपयोग तभी होता है जब उसके साथ विनम्रता हो। जो व्यक्ति सच में ज्ञानी होता है, वह दूसरों को नीचा नहीं दिखाता, बल्कि सबके साथ सीखने की भावना रखता है।
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